बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-2 समाजशास्त्र बीए सेमेस्टर-2 समाजशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-2 समाजशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर
महत्वपूर्ण तथ्य
जे. एच. हट्टन जाति व्यवस्था के प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण को मानते हैं। इनके अनुसार जाति व्यवस्था के तीन कार्य हैं-
(1) व्यक्तिगत सदस्यों के लिये कार्य
(2) सामुदायिक कार्य
(3) राज्य एवं समाज के लिये कार्य
कार्ल मार्क्स के अनुसार - एशियाटिक उत्पादन प्रणाली का सम्बन्ध भारत में जाति व्यवस्था की स्थिरता से है।
एच. एस. मेन के अनुसार - जाति, प्रस्थिति समाज का एक उदाहरण है।
जाति मनुष्यों का एक वह समूह है जिसकी सदस्यता जन्म पर आधारित होती है।
'जाति व्यवस्था की उत्पत्ति का प्रजातीय सिद्धान्त का समर्थन डॉ. मजूमदार, डॉ. घुरिये, दत्ता, राय आदि समाजशास्त्रियों ने किया।
19वीं शताब्दी में फ्रांसीसी विद्वान अब्बे दुबोय' का विचार है कि ब्राह्मणों की चतुर शक्ति या राजनैतिक योजना के परिणामस्वरूप जाति व्यवस्था की उत्पत्ति हुई।
मेसफील्ड का कथन है कि - विभिन्न प्रकार के व्यवसायों के अस्तित्व के परिणामस्वरूप जाति व्यवस्था की उत्पत्ति हुई।
एन. के. दत्ता ने - जाति व्यवस्था के छः लक्षण बताये हैं-
1. जाति के सदस्य दूसरी जाति में विवाह नहीं कर सकते।
2. खान-पान सम्बन्धी प्रतिबन्ध।
3. जाति के पेशे निश्चित होते हैं।
4. ऊँच-नीच का संस्तरण।
5. एक जाति दूसरी जाति में जाना सम्भव नहीं है।
6. जाति व्यवस्था ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा पर निर्भर है।
डॉ. जी. एस. घुरिये ने - जाति व्यवस्था की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई समाज का खण्डात्मक विभाजन, संस्तरण, भोजन एवं सामाजिक सहवास पर प्रतिबन्ध, विभिन्न जातियों की सामाजिक एवं धार्मिक निर्योग्यताएँ तथा विशेषाधिकार पेशों के अप्रतिबन्धित चुनाव का अभाव, विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्ध।
जाति व्यवस्था को निर्बल बनाने के तत्व इस प्रकार हैं नगरीकरण, औद्योगीकरण, विज्ञान का प्रभाव, वर्तमान शिक्षा, सामाजिक सुधारकों का प्रभाव, सामाजिक स्वतन्त्रता का प्रभाव, देशी राज्यों का समाप्त होना, यातायात व संचार के साधनों में वृद्धि, धन का महत्व, महात्मा गाँधी तथा कांग्रेस का प्रयास, नवीन सामाजिक वर्गों का उदय, पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव, साम्यवाद का प्रभाव, नवीन कानून व्यवस्था, प्रजातान्त्रिक प्रणाली का चुनाव।
वर्तमान समय में जाति व्यवस्था में होने वाले मुख्य परिवर्तन इस प्रकार हैं- जातिवाद की भावना का विकास, ब्राह्मणों की स्थिति का नीचा होना, पेशों के चुनाव में स्वतन्त्रता होना, जातियों के स्थान पर वर्गों का विकास होना, जातीय संगठनों का विकास, अन्तर्जातीय विवाहों में वृद्धि, भोजन सम्बन्धी प्रतिबन्धों में शिथिलता, हरिजनों का उत्थान।
जाति व्यवस्था से भारतीय समाज को होने वाले प्रमुख लाभ या जाति व्यवस्था के समाज के प्रति प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं-
(1) मानसिक सुरक्षा,
(2) सामाजिक सुरक्षा,
(3) निःशुल्क औद्योगिक प्रशिक्षण
(4) जीवन के विभिन्न आवश्यक कार्यों का निर्धारण,
(5) सामाजिक नियन्त्रण का कार्य,
(6) जाति के सदस्यों में सहयोग तथा मातृत्व की भावना,
(7) सामाजिक समानत का अवसर प्रदान करना।
(II) जातीय समुदाय से सम्बन्धित कार्य या लाभ-
(1) व्यापारिक संघ का कार्य,
(2) तान्त्रिक और औद्योगिक रहस्यों को गुप्त रखना,
(3) शैक्षणिक नियमों का निर्धारण, सुप्रजनन की शुद्ध रेखा बनाए रखना, (4)धार्मिक कार्य ।
(III) सामाजिक तथा राजनैतिक कार्य या लाभ-
(1) भारतीय समाज को संगठित रखना,
(2) राजनैतिक कार्य,
(3) सामाजिक और राजनैतिक स्थिरता बनाये रखना।
जाति व्यवस्था के प्रमुख दोष
(अ)व्यक्तिगत दृष्टिकोण से-
(1) व्यक्तित्व के विकास में बाधा।
(ब) आर्थिक दृष्टिकोण से-
(1) आर्थिक विकास में बाधा,
(2) नवीन आविष्कारों मं बाधा,
(3) श्रम तथा धन का असमान वितरण ।
(स) सामाजिक दृष्टिकोण-
(1) हिन्दू समाज की क्षीणता,
(2) अस्पृश्यता का विकास,
(3) सामाजिक सुधार में बाधा,
(4) विभिन्न सामाजिक बुराइयों का कारण,
(5) सामाजिक प्रगति में बाधा,
(6) स्त्रियों की दुर्दशा,
(7) सामाजिक विघटन ।
(द) सांस्कृतिक दृष्टिकोण से-
(1) शिल्पकला का ह्रास ।
(य) राजनैतिक दृष्टिकोण से-
(1) देश की पराधीनता
(2) राष्ट्रीय एकता में बाधा,
(3) अप्रजातान्त्रिक |
एस. पी. राय ने सांस्कृतिक सम्पर्क को ही जाति की उत्पत्ति के लिये उत्तरदायी माना।
गिलबर्ट का मत है कि भौगोलिक परिस्थितियों की विभिन्नता के कारण ही जाति प्रथा का जन्म हुआ।
राइस के अनुसार, जाति प्रथा की उत्पत्ति टोटम के कारण हुई।
स्लेटर का मत है कि उद्योग-धन्धों के भेदों को गुप्त रखने के लिये ही जाति प्रथा का जन्म हुआ।
आदिम संस्कृति या माना का सिद्धान्त इस सिद्धान्त का प्रतिपादन हट्टन ने 1931 की जनगणना रिपोर्ट में प्रजातीय सिद्धान्त की आलोचना के दौरान किया।
विभिन्न जातियों के बीच पाये जाने वाले विवाह एवं खान-पान सम्बन्धी निषेधों को समझने के लिये हट्टन ने 'माना' का सहारा लिया।
'माना' एक रहस्यमयी, अलौकिक एवं अवैयक्तिक शक्ति है जो प्रत्येक व्यक्ति एवं वस्तु में भिन्न- भिन्न मात्रा में पायी जाती है। यह स्पर्श से एक व्यक्ति से दूसरे में आ-जा सकती है, इसका प्रभाव अच्छा एवं बुरा दोनों ही हो सकता है। इसलिये 'माना' में विश्वास करने वाले लोग अपरिचित व्यक्तियों के स्पर्श से डरते हैं।
यह परिभाषा किसकी है - "मैं आपको स्पष्ट शब्दों में कह देना चाहता हूँ कि यदि आप ये सोच रहे हैं कि आप जाति से सरलता से मुक्ति पा सकते हैं तो आप गम्भीर त्रुटि कर रहे हैं। जाति एक बहुत ही शक्तिशाली संस्था है और यह समाप्त होने से पूर्व बहुत ही खून-खराबा करेगी।"
(a) ब्लण्ट
(b) योगेन्द्र सिंह
(c) प्रो. एम. एन. श्रीनिवास
(d) नर्मदेश्वर प्रसाद
ब्राइस रेन का मत है कि जाति व्यवस्था का आधार विभिन्न जातियों के बीच सांस्कृतिक भिन्नत का पाया जाना है, किसी प्रकार के संघर्ष का पाया जाना नहीं।
होकार्ट का मत है कि - धार्मिक क्रियाओं अथवा कर्मकाण्डों के कारण ही जाति प्रथा का उद्गम हुआ। सेनार्ट ने भोजन, विवाह और सामाजिक सहवास से सम्बन्धित निषेधों के आधार पर जाति की उत्पत्ति को स्पष्ट किया है।
विलियम वाइजर पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारत में जजमानी प्रथा का उल्लेख किया।
जाति व्यवस्था को समाप्त करने के लिये प्रथम प्रयास 1955 में किया गया।
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